Header Ads Widget

Ticker

6/recent/ticker-posts

गठबंधन की ‘राजनीति’ से कमजोर हुआ निर्दलीयों का राज, उम्मीदवारों की संख्या और वोट शेयरिंग में आई कमी https://ift.tt/3cJv8Pc

चुनावी राजनीति में निर्दलीयों की भूमिका रही है। झारखंड में एक निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बन गए थे। लेकिन बिहार की राजनीति में जैसे-जैसे गठबंधन की राजनीति गहराती गई, निर्दलियों के लिए जगह कम होती चली गई। विधानसभा चुनाव का ट्रेंड देखें तो लगता है बदली हुई राजनीतिक और सामजिक परिस्थितियों में इस बार भी निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में कम ही होंगे।

1957 में जब बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी थी और कांग्रेस ही एक मात्र बड़ी पार्टी थी तब भी 45 निर्दलीय चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे। इमरजेंसी के बाद चुनावी राजनीति में निर्दलीय प्रत्याशियों की भागीदारी में जबरदस्त उछाल दर्ज की गई। 1951 से 2015 तक औसतन 1617 प्रत्याशी मैदान में थे जिसमें औसतन 17 निर्दलीय विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे।

अक्टूबर 2005 में सबसे कम वोट, 2015 में सबसे कम जीत

पिछले तीन विधानसभा चुनाव 2005 अक्टूबर, 2010 और 2015 के चुनाव को देखें तो क्रमश: 746, 1342 और 1150 प्रत्याशी मैदान में थे इनका औसत लगभग 1079 आता है। इस दौरान निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीतने वाले विधायकों का औसत 7 से भी कम रहा। इतना ही नहीं इस दौरान निर्दलीय प्रत्याशियों को मिले वोट भी प्रतिशत भी औसत से कम रहा। 2015 के चुनाव में कुल 4 निर्दलीय प्रत्याशी ही विधानसभा पहुंच पाए।

इमरजेंसी बाद पहली बार 2206 निर्दलीय प्रत्याशी आए

1951 से 1971 तक के चुनाव में औसतन 552 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव में दावा पेश करते थे। 1977 के चुनाव में अचानक से 2206 प्रत्याशी मैदान में आ गए। सबसे ज्यादा 23.73 प्रतिशत वोट भी इनको मिले। हालांकि जीत का प्रतिशत (1.09 ) कम ही रहा। यह ठीक इमरजेंसी के बाद का चुनाव था। इसके बाद बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। साल 1985 से 1995 तक लगातार निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Independence rule weakened by coalition's 'politics', decrease in number of candidates and vote sharing


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3n579Pb

Post a Comment

0 Comments